तुम मेरे किताब का शीर्षक बन जाओ ना।

कविता

ये दो पल का हैं जिंदगी
मुझे इतना हीं तो जीना हैं
दो पल, मुझे दो लब्ज़
तेरे साथ गुफ्तगू करना हैं
तुम मेरी पुरानी कहानी सा आ जाओ ना
तुम मेरे किताब का शीर्षक बन जाओ ना।

तुझ बिन ये दो पल जीना
दो सदी सा लगता हैं
ये दिन गुजरे कई साल हुए
तुझ बिन ये चाय अधूरा लगता हैं
तुमसे बहुत बाते हैं करनी
तुम मेरी पहले वाली प्रेरणा सा आओ ना
तुम मेरे किताब का शीर्षक बन जाओ ना।

बहुत मिलना हुआ पनघट पर
उससे छुपते तो उनसे डरते
तुम्हारे गली में मेरे गुजरने पर
तुम अपने छत से तिनके से देखते
वो यादें फिर से दुहराओ ना
तुम मेरे किताब का शीर्षक बन जाओ ना।

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